हिनà¥à¤¦à¥€ नवगीत
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाà¤à¤à¥¤
बहà¥à¤¤ लहलही आज हिंसा की फसलें
पà¥à¤°à¤¦à¥‚षित हà¥à¤ˆ हैं धरा की हवाà¤à¤à¥¤
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाà¤à¤à¥¤à¥¤
बहà¥à¤¤ वक़à¥à¤¤ बीता कि जब इस चमन में
अहिंसा के बिरवे उगाठगठथे
थे सोये हà¥à¤ à¤à¤¾à¤µ जन-मन में गहरे
पवन सतà¥à¤¯ दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ जगाये गये थे,
बने वृकà¥à¤·, वट-वृकà¥à¤·, छाया घनेरी
धरा जिसको महसूसती आज तक है
उठीं वक़à¥à¤¤ की आà¤à¤§à¤¿à¤¯à¤¾à¤ कà¥à¤› विषैली
नियति जिसको महसूसती आज तक है,
नहीं रख सके हम सà¥à¤°à¤•à¥à¤·à¤¿à¤¤ धरोहर
अà¤à¥€ वक़à¥à¤¤ है, हम अà¤à¥€ चेत जाà¤à¤à¥¤
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाà¤à¤à¥¤à¥¤
नहीं काम हिंसा से चलता है à¤à¤¾à¤ˆ
सदा अंत इसका रहा दà¥:खदाई
महावीर, गाà¤à¤§à¥€ ने अनà¥à¤à¤µ किया, फिर
अहिंसा की सीधी डगर थी बताई
रहे शà¥à¤¦à¥à¤§-मन, शà¥à¤¦à¥à¤§-तन, शà¥à¤¦à¥à¤§-चिंतन
अहिंसा के पथ की यही है कसौटी
दà¥à¤–द अनà¥à¤¤ हिंसा का होता हमेशा
सà¥à¤–द बहà¥à¤¤ होती अहिंसा की रोटी
नई इस सदी में, सघन तà¥à¤°à¤¾à¤¸à¤¦à¥€ में
नई रोशनी के दिये फिर जलाà¤à¤à¥¤
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाà¤à¤à¥¤
-डॉ० जगदीश `वà¥à¤¯à¥‹à¤®'